मायावी घड़ा


 

एक धनपति था। धन की उसके पास कोई कमी नहीं थी, परंतु फिर भी व्यवसाय

करना व धन कमाना उसका प्रमुख शौक था। उसका हँसता-खेलता भरापूरा परिवार भी था,

लेकिन सबकुछ होते हुए वह सुखी नहीं था। हँसना, गाना या मस्ती का दूर-दूर तक उसके

जीवन में कोई नामोनिशान नहीं था। बस इसी बात को लेकर वह परेशान रहा करता था।

एकबार कहीं से उसके यहां एक संनन्‍्यासी पधारे। वे तो धनपति का हाल देखते ही समझ

गए कि सबकुछ होते हुए भी यह सुखी नहीं है। उधर धनपति ने भी मौका देख अपना

दु:खड़ा उनके सामने रो ही दिया। वह दोनों हाथ जोड़ संन्यासी के चरणों में गिड़गिड़ाते हुए

बोला- मेरे पास सबकुछ है, पर जीवन में प्रसन्नता नहीं। कुछ भी करो महाराज परंतु मेरा

जीवन प्रसन्नता से भर दो।


संन्यासी हँसते हुए बोला- वह तो मेरे लिए क्षणभर का काम है, बस उसके लिए

तुम्हें मेरी एक शर्त पूरी करनी होगी। लेकिन शायद तुमसे होगी नहीं।


धनपति बोला- क्‍या बात करते हो महाराज। जीवन में प्रसन्नता पाने के लिए मैं कुछ

भी कर सकता हूँ।


यह सुनते ही संन्‍्यासी ने पास से एक छोटा-सा घड़ा निकाला और उसे वह हाथ में

थमाते हुए बोले- बस इसे सोने की मोहरों व हीरे-जवाहरातों से भरकर मुझे दे दो।


अब धनपति के पास तो अपार धन था। उसे प्रसन्नता पाने हेतु इतना दान पोसाता ही

था। वह तो झट से दौड़कर गया और दोनों हाथों में खजाना और सोनामोहरें लाकर घड़े में

उड़ेल दिया। लेकिन घड़ा भरा नहीं... कोई बात नहीं, कुछ कम पड़ गया तो फिर भर देते हैं।

भला अपने पास खजाने की क्या कमी? यह सोचकर उसने चार-पांच बार और खजाना व

सोनामोहरें लाकर घड़े में उड़ेली, पर घड़ा था कि भर ही नहीं रहा था। धीरे-धीरेकर खजाना

तो खाली होता जा रहा था पर घड़ा अब भी भरने का नाम नहीं ले रहा था। उधर अपने घड़े

का यह खेल देख संन्यासी तो मंद-मंद मुस्कुरा रहा था परंतु वह धनपति बड़े सकते में आ

गया था। माजरा पूरी तरह उसकी समझ के बाहर हो गया था। लेकिन चूंकि घड़ा भरने का

वचन दिया था, सो पूरा तो करना ही था। बस वह हीरे-जवाहरात उसमें लगातार उड़ेले जा

रहा था, लेकिन घड़ा नहीं भर रहा था तो नहीं ही भर रहा था। ...ऐसा करते-करते घड़ा

उसका पूरा धन पचा गया, लेकिन था अब भी खाली-का-खाली। यह देख वह धनपति

संन्‍्यासी के कदमों में गिर पड़ा और दोनों हाथ जोड़ते हुए पूछने लगा- महाराज! यह घड़ा

किस चीज से बना है जो मेरा पूरा धन हजम करने के बाद भी नहीं भर रहा है?


संन्यासी हँसते हुए बोला- यह आकांक्षा और महत्वाकांक्षा की मिट्टी से बना है। तुम

अपनी ही क्या, पूरे संसार का धन भी इसमें डाल दोगे तो भी यह नहीं भरनेवाला। बस

तुम्हारा भी यही हाल हो चुका है, तुम्हारे मन-बुद्धि की महत्वाकांक्षाएं इतनी मजबूत हो गई

हैं कि कितना ही कमा लो तुम्हारा मन भर नहीं रहा है। जबकि जीने हेतु जितना चाहिए

उससे कई गुना पहले से ही तुम्हारे पास है। जिस रोज तुम इस महत्वाकांक्षा के जाल को

तोड़ने में कामयाब हो जाओगे, उस रोज तुम्हारे जीवन से यह दौड़ा-भागी समाप्त हो

जाएगी। और तभी तुम इस धन का अपने लिए और दूसरों के लिए सकारात्मक उपयोग कर

पाओगे। बस इससे तुम्हें आनंद व संतोष दोनों मिलेंगे।


यह सुन बेचारा धनपति गिड़गिड़ाता हुआ बोला- आपकी बात तो समझ गया,

लेकिन अब क्या? मेरा पूरा धन तो आपका घड़ा खा गया।


संन्यासी ने हँसते हुए घड़ा उलट दिया और सोना सहित सारे हीरे-जवाहर बाहर ढेर

की शक्ल में जमा हो गए। धनपति अपना खोया धन वापस पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ। फिर तो

उसका जीवन ही बदल गया। सबसे पहले तो उसने जीवन से सारी फोकट की व्यावसायिक

भागदौड़ काट दी। इसके साथ ही वह अपने व अपने परिवार पर दिल-खोलकर खर्च भी

करने लगा। यही नहीं, जब मौका मिले अच्छे कामों हेतु चैरिटी भी खूब देने लगा। फिर क्या

था, चन्द दिनों में ही उसके जीवन ने ऐसी करवट ली कि वह आनंद और संतोष के शिखर

पर जा बैठा।


सार:- आप समझे कि नहीं? जरा ध्यान से देख लेना कि कहीं आपकी

महत्वाकांक्षाएं भी आपको इस कदर दौड़ा तो नहीं रहीं? ऐसा तो नहीं कि धन के लोभ ने

आपको इतना अंधा कर दिया है कि आपके पास ना तो अपने लिए समय है, और ना ही

आपका कमाया धन आपके काम आ रहा है? यदि ऐसा है तो आज ही सम्भल जाओ। धन

जीवन की परम आवश्यकता है, पर धन उतना ही कमाना चाहिए जितना अपनी मृत्यु के

पूर्व वापर पाओ। धन में पाप नहीं यदि साथ में चैरिटी करने का दिल भी रखते हों तो...

वरना सिर्फ धन के पीछे की अंधी दौड़ कमाने में भी कष्ट देती है और साथ में हजारों

व्यावसायिक झंझटें भी झेलवाती है। और इतनी जहमत उठाने के बावजूद इसके वापरने

का या चैरिटी करने का हृदय न होने के कारण आप ही का कमाया धन आपको सुख भी

रत्तीभर नहीं देता। एक क्षण को ठहरकर बुद्धिपूर्वक सोचना, क्या इससे बड़ा और कोई

पागलपन हो सकता है दुनिया में?

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