मनुष्यों के दु:ख का साथी कौन ?

 


एकबार एक व्यक्ति ने बड़ी घोर तपश्चर्या की। भगवान इस कदर प्रसन्न हो गए कि

हाथोंहाथ वरदान देने हेतु उसके सामने प्रकट हो गए। लेकिन वह व्यक्ति प्रभु के दर्शन से ही

इतना अभिभूत हो गया कि उसे वरदान मांगने की इच्छा ही नहीं हुई। फिर भी जब भगवान

ने उसे फोर्स किया तो उसने एक ही वरदान मांगा कि “आप हमेशा हरहाल में मेरे साथ

रहें”। प्रभु ने वरदान दे दिया। ..और यह तो वाकई चमत्कार हो गया। वह चलना शुरू हुआ

तो जमीन पर पांव के दो की जगह चार निशान बनने शुरू हो गए। यानी वाकई प्रभु उसके

साथ हो लिए थे। वह तो मारे खुशी के झूम उठा। उसकी चाल ही बदल गई। विश्वास के

सातवें आसमान पर जा बैठा वह। भगवान चौबीसों घंटे साथ है, और क्या चाहिए? लेकिन

कहीं-न-कहीं शंकित भी था कि कहीं भगवान साथ छोड़ न दे। सो, इस बात को लेकर वह

चौकन्ना भी पूरा रहता था। बीच-बीच में वह जंगल में, मिट्टी या कीचड़ में चलकर देख भी

लिया करता था कि वाकई प्रभु उसके साथ अब भी हैं कि नहीं। और जैसे ही कदमों के चार

निशान पाता तो वह ना सिर्फ आश्वस्त हो जाता, बल्कि लगे हाथों उन्हें धन्यवाद भी दे देता।


.वैसे उसका हँसता-खेलता परिवार था। आर्थिक रूप से भी वह खाते-पीते काफी

सुखी था। कहने का तात्पर्य आदमी ना सिर्फ प्रभु का सच्चा भक्त-मात्र था, बल्कि जीवन भी

उसका भरापूरा और खुशहाल था। और सोने पे सुहागा यह कि अब उसका और भगवान

का चौबीसों घंटे का साथ भी था। ...लेकिन कहते हैं न कि समय की चाल सदैव एक-सी

नहीं रहती है। बस उसी तर्ज पर उसके जीवन में भी एक टर्निंग पॉइंट आया। अचानक एक

हादसे में उसके दोनों बच्चों की मृत्यु हो गई। पत्नी यह हादसा नहीं सह पाई और पागल हो

गई। निश्चित ही इन सबका उसपर भी बड़ा गहरा असर पड़ा। मारे सदमे के धंधे पर ध्यान न

दे पाने की वजह से वहां भी नुकसान होना प्रारंभ हो गया। कुल-मिलाकर चारों ओर से

उसपर संकट गहरा गया। बड़ी ही मनहूसियत में उसके दिन गुजरने लगे। वह तो यहां तक

सोचने लगा कि अब जीवन में रखा ही क्‍या है? क्यों न बचा हुआ जीवन प्रभु-भक्ति में ही

गुजारा जाए! बस विचार करते ही वह तो सब छोड़कर संन्यास लेने जंगल की ओर चल

पड़ा। अचानक उसकी निगाह अपने पांव के निशान पर पड़ी, पंजे के दो ही निशान थे। वह

तो बुरी तरह चौंक गया और लगा सीधे भगवान को कोसने- संकट की इस घड़ी में तुमने भी

मेरा साथ छोड़ दिया। अरे, तुम तो आम संसारी से भी गए-गुजरे निकले। तुम पूजा के

लायक ही नहीं। नहीं लेना संन्यास, इससे तो मैं अपनी दुनिया में ही भला हूँ।

यह सुनते ही उसके भीतर विराजमान प्रभु ने प्रकट होते हुए कहा- वत्स, तुम

अकारण पंजे के दो निशान देखकर भ्रमित हो रहे हो। तुम्हारे दोनों पुत्र मर गए, पत्नी पागल

हो गई, तुम क्या सोचते हो कि यह भयानक हादसा सहने की तुम्हारी क्षमता थी?

..बिल्कुल नहीं। तुम्हारे संकट के ये तमाम थपेड़े कबसे मैं अकेले ही सह रहा हूँ। और यह

जो दो पंजे के निशान देख रहे हो, वे मेरे ही हैं। तुम कुछ ऊटपटांग न कर बैठो या हताशा के

गहरे भंवर में न चले जाओ, इसलिए तुम्हें तो मैंने बच्चों की मृत्यु के दिन से ही थाम रखा है।


सार:- यही जीवन का सत्य है। जब भी मनुष्य पर कोई बड़ा संकट आता है, तब

वह संकट सीधा मनुष्य की आत्मा थाम लेती है। वह जानती है कि मनुष्य का अहंकार यह

सदमा झेल ही नहीं पाएगा। आपको भी इस बात के कई अनुभव होंगे ही, आपने भी

अनेकों बार नोटिस किया ही होगा कि आपके या अन्य किसी के साथ ऐसे हादसे हो जाते हैं

जो कल्पना करो तो सहना मुश्किल, परंतु फिर भी वास्तव में घटने पर सहने की क्षमता आ

ही जाती है। वह क्षमता आती ही इसलिए है कि वह सदमा आपका आत्मा यानी आपका

भगवान झेलता है, जो हरहाल में स्थिर रहने के स्वभाववाला है। उसकी यह स्थिरता,

आपको पहुंची चोट को सॉफ्ट कर देती है और यह सॉफ्ट चोट आप सह जाते हैं।

...बताओ, भगवान इससे ज्यादा आपके लिए क्‍या कर सकता है?

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