मध्य भारत के किसी गांव में एक महान फकीर रहा करता था। वह ज्ञानी होने के
साथ-साथ करुणाशील भी था। वह किसी से अनावश्यक भेंट भी नहीं स्वीकारता था। बड़ा
ही सादगीपूर्ण जीवन था उसका। एक कक्ष के झोंपड़े में वह रहता था। पूंजी के नाम पर
उसके पास चन्द बर्तन और दो कंबल के अलावा कुछ न था। अब उन कंबलों को चाहे वस्त्र
कह दो या उसका ओढ़ना-बिछौना, परंतु ओढ़ने-बिछाने के नाम पर जो कुछ भी उसके पास
था, बस वही था। स्वाभाविक तौरपर जब इतना महान फकीर था, तो पूरा गांव उसकी बड़ी
इज्जत भी करता था।
और उनकी जो बात मैं बताने जा रहा हूँ, वह सर्दी के मौसम की है। बड़े कड़ाके की
ठंड पड़ रही थी उन दिनों। ठंड की ऐसी ही एक रात्रि को हमेशा की तरह फकीर अपने एक
कंबल ओढ़े व एक बिछाये सो रहा था। अब फकीर तो वही है जो स्वयं के भरोसे जीते हैं।
सो झोंपड़े के दरवाजे पर सांकल वगैरह लगाने का भी सवाल नहीं उठता था। उधर उसी
समय एक भूखा चोर गांव में तफरीह पर निकल पड़ा। उसे अन्य कहीं घुसने में तो सफलता
नहीं मिली, परंतु चूंकि फकीर का द्वार खुला था, सो वह चोरी करने वहीं घुस गया। अंधेरे में
दस-एक मिनट तक उसने पूरा झोंपड़ा टटोला पर उसे एक छोटा भगोना व टूटे गिलास के
अलावा कुछ न मिला। अब इस मौसम में ये दो टूटे-फूटे बर्तन प्राप्त करने हेतु तो उसने यह
कष्ट उठाए नहीं थे। सो स्वाभाविक तौरपर वह निराश हो गया।
इधर फकीर की नींद क्या? वह तो पहली आहट से ही जाग गया था। परंतु फकीर
भी, फकीर था। वह आंखें बंद किए ही इस तमाशे का मजा ले रहा था। उधर चोर को अंत
में जब कुछ न सूझा तो उसने फकीर का ओढ़ा हुआ कंबल ही झपट लिया। कम-से-कम
कुछ आत्मसंतोष तो मिलना चाहिए। इतनी रात को इतनी तकलीफें उठाने के बाद भी हाथ
कुछ न लगे तो यह तो नाकामी हुई। और नाकामी तो नाकामी है, चोर तक को पसंद नहीं
आ सकती है। सो बस, कंबल मारने के आत्मसंतोष के साथ वह दरवाजे से बाहर निकलने
को हुआ।
लेकिन वह निकल नहीं पाया, क्योंकि फकीर यह सारा तमाशा देख ही रहा था, और
अब उसके बीच में कूदने का वक्त भी आ ही गया था। बस उसने दरवाजे के बाहर जाते चोर
को कड़क आवाज में रुकने को कहा। फकीर की रुआबदार आवाज सुन चोर के तो पांव ही
जकड़ गए। इस दरम्यान फकीर उठ खड़ा हुआ और उसे भीतर आने को कहा। चोर के तो
भरी ठंड में पसीने छूट गए। ...बेचारा चुपचाप वापस अंदर आ गया।
इधर चोर के चेहरे पर ऐसी घबराहट देख फकीर ने बड़ी विनम्रतापूर्वक उससे माफी
मांगते हुए कहा- माफ करना भाई! तुम इतनी ठंड में इतनी दूर से आए पर मैं तुम्हारी कोई
सहायता न कर सका। घर में कुछ है ही नहीं जो तुम्हें संतुष्ट कर पाऊं । लेकिन अगली बार
आना हो तो इत्तला करके आना। आसपास से मांगकर कुछ एकत्रित कर लूंगा, ताकि
तुमको इस कदर निराशा लेकर न जाना पड़े।
उधर चोर जो पहले ही फकीर की कड़क आवाज सुन घबराया हुआ था, अब ऐसा
हसीन प्रस्ताव सुनते ही बर्तन के साथ-साथ उसके हाथ से कंबल भी छूट गया। बौखला तो
ऐसा गया कि बिना कुछ लिए ही भागने को हुआ। यह देख फकीर ने फिर गरजते हुए उससे
कहा- जो लेकर जा रहे थे...वह सब तो लेकर ही जाना होगा। और हां, जाते वक्त यह
दरवाजा जरा सरका देना, ताकि मैं ठंड से बच सकूं। बेचारा चोर! वह तो रुआबदार आवाज
के सम्मोहन में फकीर का हर हुक्म मानने को बाध्य हो गया था। उसने वह फेंका कंबल व
बर्तन फिर उठाए, और जैसा कि फकीर ने कहा था, दरवाजा अड़ा कर चलते बना।
यहां तक तो सब ठीक, पर सुबह होते-होते तो वह पकड़ा भी गया। वह तो पकड़ा
ही जाना था, क्योंकि फकीर के कंबल से पूरा गांव परिचित था। स्वाभाविक तौरपर सबको
उस चोर पर बड़ा क्रोध भी आ रहा था। दुष्ट को चोरी करने के लिए क्या यह सज्जन फकीर
का ही झोंपड़ा मिला? बस पकड़कर उसे पंचायत में पेश कर दिया गया। पूरी पंचायत भी
चोर से सख्त नाराज हो उठी। सबका मन तो कर रहा था कि फकीर के यहां चोरी करनेवाले
को तो फांसी की सजा ही दे देनी चाहिए। खैर, उधर पंचायत में चोर की सजा को लेकर
बकझक चल ही रही थी कि उड़ते-उड़ते यह खबर फकीर के पास भी जा पहुंची कि चोर
पकड़ा गया है और पंचायत उसे सजा जल्द ही सुनानेवाली है। खबर सुनते ही फकीर दौड़ा-
दौड़ा पंचायत जा पहुंचा। उसने वहां जाकर साफ कहा कि यह कंबल व बर्तन उसने चुराए
नहीं, बल्कि मैंने ही उसे ये सब ले जाने को कहा था। यह तो बड़ा ही सज्जन व्यक्ति है,
इसने तो जाते-जाते मुझे ठंड न लगे इस खयाल से घर का दरवाजा तक अड़ा दिया था।
खैर! फकीर के बयान के बाद पंचायत के पास चोर को सजा देने का कोई उपाय
नहीं बचा था। सो चोर को छोड़ दिया गया। अब चोर सजा से तो बच गया परंतु फकीर द्वारा
करी गई करुणा में उलझ गया। पंचायत से निकलते ही उसका रो-रोकर बुरा हाल हो गया।
वह रोते हुए ही सीधा फकीर के चरणों में गिर पड़ा। यही नहीं, उसने फकीर से अपना सेवक
बनाने की रट ही पकड़ ली। कुछ आनाकानी कर फकीर ने उसे सेवा का मौका देना तय
किया और उसे अपने साथ घर ले आया। कहने की जरूरत नहीं कि उस चोर के साथ-साथ
फकीर के कंबल व बर्तन भी घर वापस लौट आए थे। यह तो ठीक, पर घर लौटते ही फकीर
उस चोर पर खूब हँसा। और हँसते हुए ही बोला- देखी मेरी चाल। मेरे कंबल व बर्तन तो
वापस लौट ही आए, साथ में सेवा करने हेतु एक सेवक भी ले आए। याद रख कि फकीर
का कोई सौदा कभी घाटे का नहीं होता।
सार:- ...इसे कहते हैं आत्मविश्वास। आत्मविश्वास मनुष्य की अपनी मानसिक
क्षमता है और यह मानसिक क्षमता कभी दूसरे के भरोसे नहीं आ सकती है। ...वह दूसरा
कोई क्षमतावान व्यक्ति हो या कोई महान सिद्धांत, वह दूसरा फिर चाहे बड़े-से-बड़ा धन हो
या सत्ता का कोई शिखर। ध्यान रख ही लो कि धन, व्यक्ति, वस्तु, विचार, धर्म या सत्ता में
ऐसा कुछ भी नहीं जो मनुष्य को आत्मविश्वास से भर सके। मनुष्य का आत्मविश्वास
सिर्फ उसकी अपनी प्रतिभा के प्रति ही हो सकता है, जैसा कि उपरोक्त उदाहरण में
“फकीर' को अपनी “"फकीराई' पर था।
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