संन्यासी का ज्ञान और जानवर की उलझन



 एक अड़तालीस पांव का जानवर था। वह अपनी तरंग में चलता रहता था। उसकी

चाल भी बड़ी मनमौजी थी। अक्सर वह मदमस्त हाथी की तरह अपनी लय में कदमताल

करता रहता था। इतना ही नहीं जरूरत पड़ने पर तेज गति से दौड़ भी लेता था। अपने

अड़तालीस पांव, मतवाली चाल और तेज गति के कारण वह जंगल के जानवरों में काफी

लोकप्रिय था। लेकिन एक दिन उसकी बैठे-बिठाए शामत आ गई। हुआ यह कि एक दिन

एक संन्‍्यासी जंगल से गुजर रहा था। दुर्भाग्य से उस जानवर का भी उसी वक्त वहां से

गुजरना हुआ। अब संन्यासी तो सदियों से ज्ञानियों में गिने जाते हैं। बात-बेबात या पूछो-न-

पूछो, फिर भी ज्ञान न झाड़े तो वे संनन्‍्यासी कैसे? आपमें दस ऐब न निकाले तो वे ज्ञानी

कैसे? और यह संनन्‍्यासी भी कोई अपवाद तो था नहीं।


हालांकि कुछ देर तो वह संन्यासी आश्चर्य से उस अड़तालीस पांव के जानवर को

जाते हुए देखता रहा, ऐसा जानवर उसने कभी देखा नहीं था, वह उससे प्रभावित भी हुआ;

लेकिन मैंने कहा न कि परफेक्ट से परफेक्ट बातों में भी ऐब न खोज ले तो वह संन्यासी

कैसा? और फिर उनका तो वट ही ऐब निकालने पर टिका हुआ होता है। उनकी दुकानदारी

ही इसपर चलती है कि वे व उनकी बातें सही, बाकी गलत। सो, आदत से मजबूर उस

संन्यासी ने कुछ देर उस जानवर को गौर से निहारने के बाद उसे आवाज देकर रोका। आम

मनुष्यों की तरह जानवर ने भी संन्यासी को देखते ही उसके चरणों में अपना सिर झुका

दिया। आशीर्वाद में संन्‍्यासी ने उस जानवर से कहा- तुम बेहोशी में चलते हो। हर बात का

होश होना बहुत जरूरी है। तुम्हें ध्यान देना चाहिए कि तुम्हारा कौन-सा पैर कब उठता है

और कब कौन-सा पांव फिर जमीन पर आता है। इस क्रिया को अपने कंट्रोल में लाओ, नहीं

तो यह बेहोशी किसी रोज तुम्हारा सर्वनाश कर देगी।


बेचारा जानवर! उसने तत्क्षण अपने पैरों पर गौर किया। बात उसे सही जान पड़ी।

वह चल तो रहा था पर कौन-सा पांव कब उठता था, उसका उसे कुछ होश न था। बस

तत्क्षण वह पांवों को उठने और फिर जमीन पर आने की सूचना देने में व्यस्त हो गया। इधर

हुआ यह कि पांव उसकी सूचना अनुसार जमीन से उठने और वापस जमीन पर आने तो

लगे, परंतु अपनी लाख कोशिश के बावजूद भी वह यह करने पर चल नहीं पा रहा था।

...वह तो काम पे लग गया। घंटों प्रयत्न करता रहा, पर बात नहीं बन रही थी। उधर संन्यासी

बड़े मजे लेकर यह तमाशा देख रहा था। इधर आखिर जानवर की बुद्धि जागी। उसने

सोचा, भाड़ में जाए होश। जब सब अपने-आप ठीक चल रहा है तो मैं क्यों प्रयत्न करूं?

लेकिन प्रयत्न तो प्रयत्न होता है। बस चन्द घंटों के प्रयास में वह अपनी नेचरल चाल ही

भूल चुका था। यानी ध्यानपूर्वक पांव उठाने और वापस जमीन पर रखने से तो वह नहीं ही

चल पा रहा था, परंतु अब नेचरल चाल भूल जाने के कारण बेचारा जहां था, वहीं जाम हो

गया था। वह बुरी तरह चिंता में पड़ गया। आखिर कोई उपाय न देख उसने संन्यासी से

सहायता मांगी। पूछा भी कि अब क्या करूं? अब इसमें संन्‍्यासी क्या करे...? उसका काम

था ज्ञान देना, सो वह वो दे चुका था। अब फंस गए तो इस कारण कि तुम्हारे पिछले जन्मों

के कर्म आड़े आ गए। बस उस जानवर को भी पिछले कर्मों की दुहाई देते हुए वह संन्यासी

उसे उसी हाल में छोड़कर चलता बना। बेचारा जानवर वर्षों वहीं पड़ा रहा, पर चल नहीं

पाया तो नहीं ही चल पाया। ...और आखिर उसी जगह पर उसकी मृत्यु भी हो गई।


 


सार:- बस हमारे जीवन में भी तमाम ज्ञानों और सारे प्रयत्नों का यही हाल हो रहा

है। यह तो अच्छा है कि अब तक किसी ज्ञानी ने मनुष्य को सांस कैसे लेना या कैसे हवा में

से ऑक्सीजन छांटना; यह नहीं सिखाया है। अच्छा है जो इस क्रिया पर शास्त्र नहीं लिखे

गए हैं, वरना तो ऐसे हर प्रयास में मनुष्य को भी अपनी जान गंवानी पड़ जाती; और शास्त्रों

की भाषा में उन्हें अपने पिछले कर्मों की सजा मिल रही होती।

दरअसल दिक्कत यह है कि ज्ञान का दावा कई लोग करते हैं, परंतु उनमें से

अधिकांश प्रकृति के ऑटोमेशन को नहीं समझते हैं। और सच यह है कि ऑटोमेशन ही

सबसे बड़ा, पक्का व उपयोगी ज्ञान है। क्रियाएं प्रकृति की हो या मनुष्य की, जानवर की हो

या फिर पेड़-पौधों की, सब इतनी ऑटोमेटिक और नेचरल है कि ऊपर से ओब़ा ज्ञान ही

इसमें बाधा पहुंचा रहा है। बस, यह अनावश्यक जगहों पर भी जो ज्ञान लेने और देने की

होड़ मची हुई है, उसी ने मनुष्य की हँसी छीनी हुई है। और एक उसी के कारण मनुष्य सुख

व सफलता से इतना दूर है। वरना सुख और सफलता तो हर मनुष्य का जन्मसिद्ध

अधिकार होता है।

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